तावे सी तपती
जेठ की दुपहरी में
घर के लान में
बिखेरे गए दानों को
खाने आते रोज रोज
छोटी-छोटी चिड़ियां
कई सारे कबूतर!
कुछ एकाध कौवे!!
चिलचिलाती दोपहरी
खिड़की से झांक कर
मुंह को अच्छी तरह से
कपड़ों से ढांक कर
देखता हूं बाहर—
धूप से पटे मैदान को!!

जहां न कोई पेड़
ना थी कोई वहां छांव!
‘ चुग रहे थे कबूतर!
चिड़िया भी दो तीन।
तभी अचानक आया कौवा!
जैसे हो कोई वह हौवा!!
आते ही कबूतरों को
जल्दी से खदेड़ कर
चिड़ियों को उड़ाकर
चुगने लगा चावल के दाने! “
जल्दी – जल्दी! हौले-हौले।।
—— रचयिता- शैलेंद्र कुमार मिश्र; प्रवक्ता;
सेन्टथामस इंटर कॉलेज, शाहगंज, जौनपुर, यूपी।
संपर्क नंबर- 9451528796.
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